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मुर्गीयो के रेट गिरनेसे कॉकरेल फार्मर परेशान : क्या जाण बुजकर गिराये जा रहे है मुर्गीयो के रेट?


कोण डूबा रहा फार्मर को ?
नागपूर/ललित लांजेवार: 
एक जमानेमे पोल्ट्री व्यवसाय को मुनाफे का धंदा माना जाता था। लेकिन अब वही धंदा घाटेका सौदा साबित हो रहा है। पहले कोविड और फिर बर्ड-फ्लू और अब सोयाबीन डो.ओ.सी,मका, मेडिसिन के आसमान छू जाणे वाले दाम, इस व्यवसाय को निचे ले आ रहे है| ऐसे बोलै जा रहा है। लेकिन  यह अनुमान लगाना गलत है। इसका सही उत्तर है मुर्गियोंको न मिले वाले दाम, इसी के कारण पोल्ट्री व्यवसाय पूरी तरह से डुबता नजर आ रहा है।इन सबके चलते पोल्ट्री फार्म के संचालकों को नुकसान हो रहा है। कोविड काल के बाद से उनकी चिंताये बढ़ गयी है।DOC और मका के बढते किमतो ने फार्मर को चिंता मे दाल दिया हैं।अब पोल्ट्री फीड के दाम बढ़ने से एक बार फिर मुर्गी पालन से जुड़े लोगों की परेशानी बढ़ गई है। मुर्गी के रेट नही बढ़नेसे पोल्ट्री फार्मर महीने में करोड़ रुपयों के घाटे में जा रहे है।

महाराष्ट्र मे पूर्व विदर्भ यांनी नागपूर,चंद्रपूर,अमरावती,गोंदिया,भंडारा तथा महाराष्ट्र का मराठवाडा मे ,छत्तीसगड राज्य का महाराष्ट्र से लगा हुवा कुछ हिस्सा और मध्यप्रदेश का पूर्व महाराष्ट्र से लगे हुए जिल्हो मे कॉकरेल कि फार्मिंग बडे पेमानेपर कि जाती है।लेकिन अब यह फार्मिंग अब घाटे का सौदा साबित हो रहा है। जिले के एक चौथाई पोल्ट्री फार्म पिछले कुछ साल में बंद हो चुके हैं। और कुछ बंद होने की कगार पर पहुंच गए हैं। जिसका कारण है कि पोल्ट्री सेक्टर पर सरकार कि नजर अंदाजी। इस नजर अंदाजी के कारण पोल्ट्री मे पोल्ट्री फार्मर को कर्जबाजारी के कगार पर पोहच गया है।

प्रायव्हेट कंपनी कि मनमानी
जो फर्मार 3 महिने अपने फार्म पर मुर्गिया पालता है. उसे ही उसके मुर्गी का रेट डीसाईड करणे का अधिकार नही है.भारत में कुछ कम्पनिया ऐसे है जो रोज मुर्गी के दाम तय करते। उस मुर्गी के दामों को मध्यनजर रखते हुए मुर्गी की खरेदी बिक्री की जाती है।आज तक कोई सरकारी यंत्रणा यह सेक्टर में ध्यान नहीं दे रही है। यह कंपनीया मल्टीनेशनल लेवलकि होती है। इनका व्यापर भारत और भारत के बहार भी होता है। इसी के साथ यह कंपनीयो के बड़े बड़े चिकन कटिंग के शोरूम होते है।और यह अपनेही कंपनीकी मुर्गिया इस बड़ी शो रुम में ज्यादा भाव में काट के बेचते है। जिससे इन कंपनीयों को दुगना मुनाफा होता है। इसीलिए है कंपनीया आपस में कॉम्पिटिशन करते है। जिस वजहसे कंपनीया ओपन फार्मिंग करनेवाले फार्मर का नुकसान कर रही है।

इन कंपनीका दाना,चूजे,और मुर्गियोंको दी जानेवाली मेडिसिन खुद की होती है, यह कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग कर अपना दाना ज्यादा संख्या में और अच्छा तैयार करते है,जिससे इन कंपनीयोकि मुर्गिया जल्दी एव् कम दामों में तैयार होती है, लेकिन उसके विपरीत परिणाम ओपन मार्केट फार्मिंग में होता है, सभी ओपन मार्केट फार्मिंग में काम करनेवाले फार्मर को बहार से प्रायव्हेट दाना,दवाई,चूजे आदि खरेदी करना पड़ता है. उसे अपने फार्म तक लाने का खर्चा भी उसमे शामिल करना पड़ता है, जिससे उनका खर्चा बढ़ता है, लेकिन भारत की कुछ जानी मानी कंपनीया अपना कॉस्ट ऑफ़ प्रॉडक्शन मार्केट में दिखा के ओपन फार्मिंग करनेवाले फार्मर का नुकसान करवाती है. इन पे सरकारी दबाव न होने के कारण इनकी मनमानी चलरही है. जिससे यह कम्पनिया ओपन फार्मिंग करनेवाले फार्मर को धोकादायक साबित हो रही है.

किसने दिए कंपनीयो को रेट ठहराने के अधिकार?
भारत में कुछ कम्पनिया ऐसे है जो रोज मुर्गी के दाम तय करते। उस मुर्गी के दामों को मध्यनजर रखते हुए मुर्गी की खरेदी बिक्री की जाती है।लेकिन यह रेट डिसाइड करने का अधिकार इन कंपनीयो को किसने दिया? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। इनकी खुद की फार्मिंग होने के कारण एक दूसरे कंपनीयोसे से कॉम्पिटिशन करते है।और अपने मुर्गियों के रेट सोशल मिडिया पर डालते है। आज तक इन कंपनीयो पर किसीका दबाव न होने के कारण और फार्मर उच्च शिक्षित न होने के कारण यह सारी बाते फार्मर चुपचाप सेह रहा है।

कॉकरेल का लागत मूल्य १३५ और बिक्री ८५ से ९० रुपए प्रति किलो
ट्रांसपोर्ट और मुर्गीदाने के बढते दामों के बाद ९०० ग्राम कॉकरेल तैयार करने १३५ रूपये के आस पास लागत खर्चा फार्मर को आ रहा है। लेकिन ४५ रुपए कम दाम मांग कर पोल्ट्री ट्रेडर्स फार्मर को गुमराह कर मुर्गियों की खरेदी कर रहे है। जिससे फार्मर को फायदा तो छोड़िये किलो के पीछे ४५ रूपये जेब से दाल के घाटमे मुर्गिया बेचना पड़ रहा है।जिससे सीधा असर पोल्ट्रीफार्मर फार्मिंग में घाटे का सौदा कर रहा है।महाराष्ट्र के धुले जिल्हे में कॉकरेल की फार्मिंग बड़े पैमाने में की जाती है। जब विदर्भ के मार्केट में कॉकरेल का उत्पादन होता है। तब भी ट्रेडर्स विदर्भ में डिमांड की कमी बताके धुलिया मार्केट में मुर्गिया कम दामों में मिल रही है बताकर विदर्भ में कॉकरेल का रेट गिरा देते है।और यहाँ की मुर्गिया पड़े दामों में मांगना शुरू करते है।जिससे मज़बूरी के फार्मर को अपनी मुर्गिया कम दमामे बेचना पड़ता है।फार्मर जितने दिन मुर्गी अपने फार्म में रखेंगा उतने दिन का ज्यादा दाना भी मुर्गी को खिलाना पड़ेंगे इसी लिए मज़बूरी में फार्मर को अपनी मुर्गिया कम दमामे बेचना पड़ता है।

 कंपनीयो के शेड में मुर्गिया होने तक मुर्गीयो के रेट तेज
खतम होने पर रेट गिराती है कंपनीया
इंटीग्रेशन करने वाली कंपनीया जब तक अपने शेड में कंपनी के और से फार्मिंग करती है तब तक मुर्गियों के रेट आसमान छू जाते है , १५ अप्रैल के पाहिले इंटीग्रेशन करनेवाली कंपनी के पास लाखो की संख्या में कॉकरेल का उत्पादन होने से २३० रूपये प्रति किलो का दाम तय किया था। यह रेट एक से डेड महीना कंपनीने रखा तब ओपन मार्केट के फार्मर भी फायदे में थे।इस कंपनीको सभी ट्रेडर्स या फार्मर फॉलो करते है। तब भी प्रोडक्शन ऑफ़ कॉस्ट १३५ रूपये प्रति किलो ही आती थी। लेकिन जिस दिन इंटीग्रेशन करनेवाली कंपनी के शेड की कॉकरेल मुर्गिया ख़तम हो गई, उस दिन से रेट में भारी गिरावट देखने मिली।जिसका सीधा असर ओपन फर्मिन करने वाले मार्केट में गिरा।और कॉकरेल मुर्गी के भाव २३० से सीधे ९० रूपये प्रति किलो पर आ गिरा।जिससे फार्मर को एक बैच में लाखो रुपयों का नुकसान हुवा.

तीन माह की होती है १ कॉकरेल की बॅच...
गावरन का चूजा मेहेंगा होने के कारण और देसी मुर्गी का सब्स्टिटूट बोलकर विदर्भ में कॉकरेल की फार्मिंग होना शुरू हुवा।देसी के तुलना में कॉकरेल का जुजा भी सस्ता था। लोगो को देसी मुर्गी खाना महँगा भी पड रहा था।तो दूसरी और कॉकरेल बर्ड के फार्मिंग के लिए फार्मर उत्साही भी थे।लोगो को कॉकरेल मुर्गी में गावरन याने देसी मुर्गी की टेस्ट मिलने लगी और फार्मिंग भी तेज हुई।पहले जिस लेयर मुर्गी के मेल बर्ड को कंपनी फेक देती थी अब उसकी ओपन फार्मिंग होने लगी।कोविड के पहले सब ठीक चल रहा था।लेकिन उसके बाद फार्मिंग मानो ख़त्म हो गई। कॉकरेल की १ किलो मुर्गी तैयार होने में ७० दिन लगता है।उसके बाद १० दिन शेड सफाई में जाते है बाकि बचे दिन फार्म डिसइंफेक्टेड करने फार्म रेस्ट को जाते है।लेकिन कॉकरेल की डिमांड ८०० ग्राम से शुरू हो जाती है। बहोत कम लोग १ किलो तक तैयार करते है। लेकिन ७० दिन अपने बच्चो जैसी परवरिश करने के बाद भी मुर्गी को भाव नहीं मिलपाता।उसके विपरीत ट्रेडर्स एक रात में २००० मुर्गियों पे २० से २५ हजार रूपये कमा लेता है. ऐसे फार्मर का कहना है।  कॉकरेल फार्मिंग करने वाले फार्मर स्वप्निल कहते है , १५ अप्रैल के पाहिले इंटीग्रेशन करनेवाली कम्पनी के पास कॉकरेल का उत्पादन अधिक होने से २३० रूपये प्रति किलो का दाम तय किया था, तब ओपन मार्केट के फार्मर भी फायदे में थे, तब भी प्रोडक्शन ऑफ़ कॉस्ट १३५ रूपये प्रति किलो ही आती लेकिन आज ९० रूपये मांग कर आज लाखो के नुकसान उठाना पड रहा है। सरकार भी हमारा दर्द नहीं समज पा रही है।

8 लाख कॉकरेल की होती है 1 महीने में प्लेसमेंट 
पोल्ट्री फार्मिंग में जिस तरह गावरान या ब्रॉयलर की फार्मिंग बड़े पैमानेपर होती है। उसी तरह कॉकरैल बर्ड की भी फार्मिंग बड़े तौर पे की जा रही है। महीने भर में 8 लाख मुर्गियोकि प्लेसमेंट महाराष्ट्र मे पूर्व विदर्भ यांनी नागपूर,चंद्रपूर,अमरावती,गोंदिया,भंडारा तथा ,छत्तीसगड राज्य का महाराष्ट्र से लगा हुवा कुछ हिस्सा और मध्यप्रदेश का पूर्व महाराष्ट्र से लगे हुए जिल्हो मे  कि जाती है। इंटीग्रेशन कम्पनीज़ ब्लैकलिस्टेड या डिफाल्टर फार्मर इंटीग्रेशन छोड़ के कॉकरेल के फार्मिंग में आनेसे पेसमेंट भी बढ़ रही है। 

बढ़ते पोल्ट्री फीड के दाम;फार्मर पर महंगाई की मार
कोकरेल फार्मिंग करने वाले फार्मर संदीप कहते है ,ऊंचाई पर जा रहे सोयाबीन,मका के दामों से पशुपालन और पशु आहार बनाने वाले उद्योग साथ ही मे फार्मर्स परेशान हैं। मुर्गियों की खाद्य सामग्री महंगी होने से पोल्ट्री फीड कि कीमत भी दिनो दिन बढ रही है। खाद्य मे मिलाये जाणेवाले सभी उत्पाद महेंगे मिल रहे है। साथ हि मे डिजेल का रेट बढने के कारण ट्रांसपोर्ट भी महेंगा हो रहा है।जिसका सिधा असर फार्मर पे गीर रहा है। लागत मूल्य भी नहीं निकल पाने से पोल्ट्री फार्म संचालकों के लिए मुर्गीपालन मुश्किल हो गया है।

ट्रेडर्स- बिचौली कर रही मनमानी
जिस तरह रेट डिसाईड करनेवाली कंपनी अपनी मनमानी कर रेट मार्केट में लाती है उसी तरह सरकारी दबाव न होने के कारण ट्रेडर्स फार्मर को रोज नए बहाने बनाके कम दाम में मुर्गिया खरेदी करते है ऐसे फार्मर कहते है। कम दाम में जो फार्मर मुर्गी बेचेंगे उसको पकड़कर ज्यादा मुनाफा कमाने के चक्कर में मुर्गिया खरेदी करते है।कभी कभी एक फार्मर का सौदा होने के बाद भी सौदा कैंसल कर कम दाम में मिलने वाले मुर्गियों की खरेदी ट्रेडर्स या बिचौली करते है।जिससे फार्मर का बड़ा नुकसान होता है।
सरकार से मदत जरुरी
एक तरफ सरकार कृषीपूरक व्यवसाय करने के लिए प्रोत्साहित करती है। लेकिन उसके उपर किसी का कंट्रोल न होने के कारण व्यवसाय मे कालाबाजारी का प्रमाण दिनोदीन बढ गया है। सरकारने इस व्यवसाय के लिए स्वतंत्र विभाग तयार करना चाहिये। जिस तरह गेहू,चावल,बाजरा के साथ अन्य कृषी से संबंधित फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है। उसी तरह मुर्गी के दाम निर्धारित होणा चाहिये।इस पर भी सरकारी नियंत्रण होणा आवश्यक हो गया है।इस पर सरकारी नियंत्रण न होणे से प्रायव्हेट इंटिग्रेशन कंपनीया चिकन के दाम निर्धारित कर रही है।इसी के कारण फार्मरोको अपने मुर्गी का सही दाम नही मिल पा रहा है।इस सिस्टम को हटाकर,सरकार मांस न्यूनतम समर्थन मूल्य निर्धारित करती है तो पोल्ट्री फार्मर कही राहत महसूस कर सकता है।तेलंगाना सरकार ने पोल्ट्री को कृषि व्यवसाय के रूप में कई रियायतें दी हैं।इनमें रियायती बिजली आपूर्ति, पोल्ट्री के लिए निर्माण कर में छूट शामिल है।हालांकि, महाराष्ट्र में स्थिति काफी अलग है। सरकार को अपनी नीति में बदलाव करना चाहिए।

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